
भाजपा सांसद रामचंद्र जांगड़ा और मध्य प्रदेश के डिप्टी सीएम जगदीश देवड़ा। आपने उनके बयानों की समीक्षा करते हुए एक गंभीर प्रश्न उठाया है: “क्या नेताओं को इस तरह के असंवेदनशील और आत्ममुग्ध बयान देने का अधिकार है?”
आपके लेख को अगर संपादित कर एक साफ, धारदार और प्रकाशन योग्य विचार लेख (op-ed style) में ढालें, तो वो कुछ इस तरह हो सकता है:
वीरांगनाओं की भावनाओं पर बयान और नेताओं की “वीरता”
लेखक: [आपका नाम]
“जिनका सिंदूर छीना गया, उनमें वीरांगना का भाव नहीं था…”
ये कोई आम आदमी की नहीं, बल्कि एक संसद सदस्य की टिप्पणी है — और वो भी उस दुखद घटना के बाद, जब जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले में 26 निर्दोष लोगों की जान चली गई।
हरियाणा के भिवानी में भाजपा सांसद रामचंद्र जांगड़ा ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि हमले में अपने पति को खो चुकीं महिलाओं में “वीरता” का भाव नहीं दिखा। वे यह भी कह गए कि यदि महिलाएं हाथ जोड़ने के बजाय मुकाबला करतीं, तो शायद मरने वालों की संख्या कम होती।
सवाल यह नहीं है कि बयान किसने दिया। सवाल यह है कि क्या संवेदनशीलता और समझदारी की उम्मीद हम अपने नेताओं से नहीं कर सकते?
क्या ये बयान वीरता है या संवेदनहीनता?
सांसद महोदय शायद भूल गए कि ये महिलाएं सैनिक नहीं थीं, न ही उन्हें आतंकी हमलों से निपटने का कोई प्रशिक्षण मिला था। वे आम नागरिक थीं — और आम नागरिकों से यह अपेक्षा करना कि वे हथियारबंद आतंकियों से लड़ें, न केवल तथ्यात्मक रूप से हास्यास्पद है, बल्कि मानवीय दृष्टिकोण से अमानवीय भी।
क्या सांसद जी खुद ऐसी स्थिति में होते तो मुकाबला कर पाते?
‘नतमस्तक सेना’ और ‘राजनीतिक पूंजी’
इसी कड़ी में मध्य प्रदेश के उपमुख्यमंत्री जगदीश देवड़ा का बयान भी कम नहीं था। जबलपुर में उन्होंने कहा — “पूरा देश, देश की सेना और सैनिक प्रधानमंत्री मोदी के चरणों में नतमस्तक हैं।”
यह बयान सुनकर लगता है कि सेना का सम्मान भी अब नेताओं की जय-जयकार में नापा जाएगा। क्या सेना, जो संविधान की शपथ लेती है, किसी व्यक्ति विशेष के चरणों में नतमस्तक होती है?
सेना की वीरता, शौर्य और बलिदान को राजनीति की पिच पर मत घसीटिए।
नेताओं से उम्मीद: संवेदना, नहीं सर्टिफिकेट
ऐसे बयानों से सवाल खड़े होते हैं —
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क्या राजनीति में संवेदनशीलता खत्म हो चुकी है?
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क्या वीरता के सर्टिफिकेट बांटने का ठेका अब नेताओं ने ले लिया है?
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क्या आम नागरिक की पीड़ा को समझने के बजाय उससे “प्रदर्शन” की उम्मीद की जाएगी?
नेताओं को यह समझना होगा कि लोकतंत्र में उनकी भूमिका सेवा की है, श्रेय की नहीं।