
कभी भारत को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था, और उसी चिड़िया को ज्ञान देने वाला प्रदेश था — बिहार। नालंदा, विक्रमशिला और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों से दुनिया भर के छात्र पढ़ने आते थे।
बिहार की विडंबना: टैलेंट एक्सपोर्ट, निवेश इम्पोर्ट नहीं
पटना | विशेष रिपोर्ट
कभी भारत को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था, और उसी चिड़िया को ज्ञान देने वाला प्रदेश था — बिहार। नालंदा, विक्रमशिला और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों से दुनिया भर के छात्र पढ़ने आते थे। बुद्ध को बोधगया में ज्ञान प्राप्त हुआ, महावीर का जन्म, आर्यभट्ट का गणित, चाणक्य की राजनीति, और डॉ. राजेंद्र प्रसाद से लेकर जयप्रकाश नारायण, श्रीकृष्ण सिंह और कर्पूरी ठाकुर जैसी विभूतियों ने इस भूमि को वैचारिक और ऐतिहासिक दृष्टि से अमर कर दिया।
लेकिन आज वही बिहार बेरोजगारी, पलायन और पिछड़ेपन के लिए जाना जाता है। सवाल यह है: आखिर ऐसा क्या हुआ कि जो बिहार कभी दुनिया को रास्ता दिखाता था, वह आज खुद रास्ता खोज रहा है?
शिक्षा का गढ़… फिर राख का ढेर
नालंदा विश्वविद्यालय का इतिहास बताता है कि एक समय बिहार पूरे एशिया का शिक्षा केंद्र था। 300 से ज्यादा कमरे, 7 बड़े हॉल और 9 मंजिला पुस्तकालय जिसमें तीन लाख से अधिक किताबें थीं — लेकिन 1193 ईस्वी में बख्तियार खिलजी ने इसे जला दिया। इस घटना को सिर्फ इमारतों का नुकसान नहीं, बल्कि बौद्धिक और सांस्कृतिक हत्या कहा जाता है।
आजादी के बाद भी उपेक्षा
स्वतंत्रता के बाद जब देश के अन्य राज्य औद्योगीकरण और कृषि सुधार की दिशा में आगे बढ़े, बिहार योजना आयोग की प्राथमिकताओं से बाहर छूटता गया।
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भूमि सुधार अधूरे रह गए।
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जमींदारी खत्म हुई, लेकिन नई “राजनीतिक जमींदारी” ने जन्म लिया।
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और फिर 2000 में झारखंड के अलगाव से बिहार अपने औद्योगिक केंद्रों – बोकारो, जमशेदपुर, धनबाद – से भी वंचित हो गया।
किसान फसल उगाता था, लेकिन न सड़क थी, न रेल। मेहनत और संसाधन थे, लेकिन बाज़ार तक पहुंच नहीं थी।
जेपी आंदोलन: उम्मीदें और विफलताएँ
1970 के दशक में जब जेपी आंदोलन उठा, तो लगा कि व्यवस्था बदलेगी। बिहार देश की राजनीति का केंद्र बन गया। लालू यादव, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान जैसे चेहरे इसी आंदोलन से निकले। लेकिन सत्ता में आते ही वे उसी सिस्टम का हिस्सा बन गए, जिसे बदलने का वादा किया था।
सामाजिक न्याय की राजनीति आई, पर विकास नहीं आया। इंडस्ट्री नहीं आई, रोज़गार नहीं आया।
छात्र राजनीति से बंदूक तक का सफर
पटना यूनिवर्सिटी, बीएन कॉलेज, मगध यूनिवर्सिटी जैसे संस्थान जहां कभी छात्रों के बीच विचारों की बहस होती थी, वहां 80 के दशक तक आते-आते कट्टा और लाठी ने जगह ले ली।
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परीक्षाओं में हथियार लेकर घुसना आम हो गया।
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एडमिशन में सिफारिश, रिजल्ट में सालों की देरी और यूनिवर्सिटी होस्टल गुंडों के अड्डे बन गए।
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छात्र संगठनों को जाति और राजनीतिक दलों ने बाँट दिया।
1990 का दशक: अंधकार का दौर
1990 से 2005 के बीच का समय बिहार के इतिहास में “जंगलराज” के नाम से जाना जाता है।
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अपहरण उद्योग बन गया।
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हर वर्ग — व्यापारी, शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर — सुरक्षित नहीं था।
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हफ्ता इतना होता था कि समोसा एक रुपये का और हफ्ता दो रुपये का होता।
सिवान का शहाबुद्दीन जैसे नाम आम लोगों के लिए आतंक का पर्याय थे। पुलिस भी उनके इलाके में बिना अनुमति प्रवेश नहीं करती थी।
शिक्षा पर असर
स्कूल और कॉलेज बंद होते थे। शिक्षक डरते थे। छात्र पढ़ने नहीं, डराने जाते थे।
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रिजल्ट चार-चार साल बाद आता था।
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हॉस्टल अपराधियों का अड्डा बन गया था।
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छात्रों के पास तीन ही रास्ते थे — राजनीति, माइग्रेशन, या सरकारी नौकरी के सपने (जो पूरे नहीं होते)।
बाहर पढ़ने को मजबूर बच्चे
कभी जहाँ विदेशों से लोग बिहार में पढ़ने आते थे, आज वहां के बच्चे दिल्ली, मुंबई, पुणे, हैदराबाद जैसे शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। और वहां उन्हें “बिहारी” कहकर ट्रोल किया जाता है। यह सिर्फ शिक्षा का संकट नहीं, आत्मसम्मान का संकट बन गया है।
राजनीति में टैलेंट, पर विजन की कमी
लालू यादव ने पिछड़े वर्ग को आवाज दी, लेकिन विकास की ठोस नीति नहीं दी।
राबड़ी देवी की सरकार पर लगातार प्रशासनिक ढिलाई के आरोप लगे।
नीतीश कुमार ने सड़कों, स्कूलों, पोशाक योजना और बिजली में सुधार किया, लेकिन सत्ता संतुलन और “पलटी” की राजनीति ने उन्हें भी स्थिर विकास की दिशा से हटा दिया।
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हर साल बिहार से सैकड़ों IAS-IPS निकलते हैं — पर वे बिहार में रहना नहीं चाहते।
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मिथिला की पेंटिंग दुनियाभर में मशहूर है — लेकिन निर्यात ढांचा कमजोर है।
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आम, लीची, मखाना जैसे कृषि उत्पाद हैं — लेकिन प्रोसेसिंग यूनिट नहीं।
अब क्या हो?
बिहार को नई आर्थिक नीति और राजनीतिक प्रतिबद्धता की ज़रूरत है। विशेषज्ञ कहते हैं कि:
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एग्रो प्रोसेसिंग हब बनाए जाएं
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डिस्ट्रिब्यूटेड इंडस्ट्रियल क्लस्टर विकसित हों
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बॉर्डर ट्रेड हब की स्थापना हो
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युवाओं के लिए आधुनिक स्किल प्रोग्राम लाए जाएं
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टूरिज्म, हस्तशिल्प और ग्रामीण इकोनॉमी को बढ़ावा दिया जाए
अंत में सवाल वही: बदलाव कौन लाएगा?
बिहार के लोग आज भी उम्मीद में हैं। यहां क्षमता है, संसाधन है, और युवा शक्ति है — लेकिन अब उन्हें दिशा, नीयत और नीति की ज़रूरत है।
बिहार को अगर फिर से “ज्ञान की भूमि” बनना है तो इतिहास से सबक लेना होगा — और भविष्य के लिए संकल्प भी।